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ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे - अहमद फ़राज़

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे हमसफर चाहिए, हुजूम नहीं एक मुसाफिर भी काफिला है मुझे तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे कौन जाने की चाहतों में फ़राज़! क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे!!

सासू की गति न्यारी.....

 प्यारी प्यारी सासु हमारी  प्रियतम की महतारी ।।प्यारी,,,,,,,,  प्राणनाथ के पिता ससुर जी  उनकी भी घरवारी  सम्प्रभुता सम्पन्न स्वगृह की   अनुविभाग अधिकारी।।प्यारी,,,,,,,,  बड़बोली मन की अति भोली  अनुभव की भण्डारी  सद् गृहस्थ जीवन जीने की  सिखा देत विधि सारी।।प्यारी,,,,,,,,  कुल परम्परा रीति नीति सब  की सांस्कृतिक प्रभारी  धन सम्पदा मान मर्यादा  सब घर की रखवारी।।प्यारी,,,,,,,,  सद् गुण देख प्रशंसा करती  कबहुँ अशीषे भारी  कबहुँ कबहुँ कुनेन सी कड़वी  देती बहु विधि गारी ।।प्यारी,,,,,,,,  रखती ध्यान अहर्निश माँ सम  सखियाँ सम हितकारी  गुरु समान सब ज्ञान सिखाती  सासू की गति न्यारी।।प्यारी,,,,,,,, By: शास्त्री_नित्यगोपाल_कटारे

ऐ मेरे प्यारे वतन -- (प्रेम धवन कृत)

ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान। तू ही मेरी आरजू तू ही मेरी आबरू तू ही मेरी जान ॥धृ॥ तेरे दामन से जो आये उन हवा-ओंको सलाम चूम् लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आये तेरा नाम सबसे प्यारी सुबह तेरी सबसे रंगीं तेरी शाम तुझपे दिल् कुर्बान ॥१॥ माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू और कभी नन्ही सी बेटी बन के याद आता है तू जितना याद आता है मुझको उतना तड़पाता है तू तुझ पे दिल कुर्बान॥२॥ छोड़ कर तेरी ज़मींको दूर आ पहुंचे हैं हम फिर भी है येही तमन्ना तेरे जर्रों की कसम हम जहां पैदा हुये उस जगह ही निकले दम तुझ पे दिल कुर्बान ॥३॥ - प्रेम धवन

माँ (शास्त्री नित्यगोपाल कटारे)

तुम्हीं मिटाओ मेरी उलझन कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो कोई नहीं सृष्टि में तुमसा माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो ब्रह्मा तो केवल रचता है तुम तो पालन भी करती हो शिव हरते तो सब हर लेते तुम चुन चुन पीड़ा हरती हो किसे सामने खड़ा करूं मैं और कहूं फिर तुम ऐंसी हो।। ज्ञानी बुद्ध प्रेम बिन सूखे सारे देव भक्ति के भूखे लगते हैं तेरी तुलना में ममता बिन सब रूखे रूखे पूजा करे सताये कोई सब की सदा तुम हितैषी हो।। कितनी गहरी है अद् भुत सी तेरी यह करुणा की गागर जाने क्यों छोटा लगता है तेरे आगे करुणा सागर जाकी रहि भावना जैसी मूरत देखी तिन्ह तैंसी हो।। मेरी लघु आकुलता से ही कितनी व्याकुल हो जाती हो मुझे तृप्त करने के सुख में तुम भूखी ही सो जाती हो सब जग बदला मैं भी बदला तुम तो वैसी की वैसी हो।। तुम से तन मन जीवन पाया तुमने ही चलना सिखलाया पर देखो मेरी कृतघ्नता काम तुम्हारे कभी नआया क्यों करती हो क्षमा हमेशा तुम भी तो जाने कैसी हो माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो।। शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

दो गज़ ज़मीन - बहादुर शाह ज़फ़र

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में  किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में - बहादुर शाह ज़फ़र

रश्मिरथी (दिनकर)

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। 'दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशिष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- 'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। 'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर, 'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड

माँ

ना स्वर की आई थी समझ और न शब्दों का ज्ञान था, फ़िर भी माँ कह पाना तुझको माँ कितना आसान था, मिश्री में घुली लोरी सुन जब नींद मुझे आ जाती थी, सुंदर से सपने तुम मेरे तकिये पे रख जाती थी, मेरी ऑंखें देख के मन की बातें तुम बुन लेती थी , मेरी खामोशी को जाने तुम कैसे सुन लेती थी, मेरी नन्ही उंगली तेरी मुट्ठी मे छिप जाती थी, कितनी हिम्मत तब मेरे इन क़दमों को मिल जाती थी, चोट मुझे लगती थी लेकिन दर्द तो तुम ही सहती थी, मेरी आँखों की पीड़ा तेरी आँखों से बहती थी, तेरे आँचल मे छुपने को मन सौ बार मचलता है, माँ तेरी गोदी में अब भी मेरा बचपन पलता है (रचयिता का नाम नहीं पता है ) 

वो जो हम में तुम में क़रार था - मोमिन

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो| वही यानी वादा निभा का तुम्हें याद हो के न याद हो| वो नये गिले वो शिकायतें वो मज़े मज़े की हिकायतें, वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो| कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी, तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो| सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का, वो निभाने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो| कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी, कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो| हुए इत्तेफ़ाक़ से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम, गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो| वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे बेश्तर, वो करम के हाथ मेरे हाथ पर, मुझे सब हैं याद ज़रा ज़रा, तुम्हें याद नो कि न याद हो| कभी बैठे सब हैं जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू, वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो कि न याद हो| वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का, वो नहीं नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो कि न याद हो| जिसे आप गिनते थ

आग का दरिया है - जिगर मुरादाबादी

इक लफ़्ज़े-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है ये किसका तसव्वुर है ये किसका फ़साना है जो अश्क है आँखों में तस्बीह का दाना है हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है वो हुस्न-ओ-जमाल उनका ये इश्क़-ओ-शबाब अपना जीने की तमन्ना है मरने का ज़माना है या वो थे ख़फ़ा हमसे या हम थे ख़फ़ा उनसे कल उनका ज़माना था आज अपना ज़माना है अश्कों के तबस्सुम में आहों के तरन्नुम में मासूम मोहब्बत का मासूम फ़साना है आँखों में नमी-सी है चुप-चुप-से वो बैठे हैं नाज़ुक-सी निगाहों में नाज़ुक-सा फ़साना है ऐ इश्क़े-जुनूँ-पेशा हाँ इश्क़े-जुनूँ-पेशा आज एक सितमगर को हँस-हँस के रुलाना है ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना तो समझ लीजे एक आग का दरिया है और डूब के जाना है आँसू तो बहुत से हैं आँखों में 'जिगर' लेकिन बिँध जाये सो मोती है रह जाये सो दाना है  जिगर मुरादाबादी 

सबकी बात न माना कर - कुंवर बेचैन

सबकी बात न माना कर खुद को भी पहचाना कर दुनिया से लड़ना है तो अपनी ओर निशाना कर या तो मुझसे आकर मिल या मुझको दीवाना कर बारिश में औरों पर भी अपनी छतरी ताना कर बाहर दिल की बात न ला दिल को भी तहखाना कर शहरों में हलचल ही रख मत इनको वीराना कर कुंवर बेचैन 

लाद चलेगा बंजारा - नज़ीर अकबराबादी

टुक हिर्स ओ हवस को छोड़ मियां मत देस-विदेस फिरे मारा, कज्जाक अजल का लूटे है, दिन-रात बजाकर नक्कारा, क्या बधिया, भैसा, बैल, शुतुर, क्या गोने पल्ला सर भारा, क्या गेहूं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग-धुवा और अंगारा, सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है, एक गाफिल, तुझसे भी चतुरा, इक और बड़ा व्योपारी है, क्या शक्कर-मिस्री, कन्द, गरी, क्या सांभर मीठी खारी है, क्या दाख मुनक्के सोंठ, मिर्च, क्या केसर, लोंग, सुपारी है, सब ठाठ पड़ा, रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। तू बधिया लावे बैल भरे, जो पूरब पश्छिम जावेगा, या सूद बढ़ाकर लावेगा, या टोटा-घाटा पावेगा, कज्जाक अजल का रस्ते में, जब भाला मार गिरावेगा, धन-दौलत, नाती, पोता क्या, इक कुनबा काम न आवेगा, सब ठाठ पड़ा रहा जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। हर मंजिल में अब साथ तेरे, ये जितना डेरा-डांडा है, जर, दाम, दिरम का भांडा है, बन्दूक, सिपर और खांडा है, जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों-मुल्कों हांडा है, फिर हांडा है ना भांडा है, ना हलवा है ना भांडा है, सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा ब

बचपन -- नज़ीर अकबराबादी

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले । निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।। चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले । हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।             मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।             क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।                         दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है । आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।। पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है । याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।             कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।             क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।                             मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना । ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।। उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना । जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना ।।             माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।             क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।                              कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं । गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुँह में घोटते

आदमी - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी और मुफ़लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी ज़रदार बेनवा है सो है वो भी आदमी निअमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी (2) मसज़‍िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्‍वाँ पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज़ यां और आदमी ही चुराते हैं उनकी जूतियाँ जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी (3) यां आदमी पै जान को वारे है आदमी और आदमी पै तेग को मारे है आदमी पगड़ी भी आदमी को उतारे है आदमी चिल्‍ला को पुकारे आदमी को है आदमी और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी (4) अशराफ़ और कमीने से शाह ता वज़ीर ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर अच्‍छा भी आदमी कहाता है ए नज़ीर और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी

मुक्तक - कुमार विश्वास

बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन जो धरती से अम्बर जोड़े , उसका नाम मोहब्बत है , जो शीशे से पत्थर तोड़े , उसका नाम मोहब्बत है , कतरा कतरा सागर तक तो ,जाती है हर उमर मगर , बहता दरिया वापस मोड़े , उसका नाम मोहब्बत है . पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

कोई दीवाना कहता है - कुमार विश्वास

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है ! मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !! मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है ! ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !! मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है ! कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !! यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं ! जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !! समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता ! यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !! मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले ! जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !! भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा! हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!! अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का! मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!

अपना सौदा - जावेद अख्तर

आज मैंने अपना फिर सौदा किया और फिर मैं दूर से देखा किया जिन्‍दगी भर मेरे काम आए असूल एक एक करके मैं उन्‍हें बेचा किया कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी तुम से क्‍या कहते कि तुमने क्‍या किया हो गई थी दिल को कुछ उम्‍मीद सी खैर तुमने जो किया अच्‍छा किया

दोस्ती जब किसी से की जाये - राहत इन्दौरी

दोस्ती जब किसी से की जाये दुश्मनों की भी राय ली जाये मौत का ज़हर है फ़िज़ाओं में, अब कहाँ जा के साँस ली जाये बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ, ये नदी कैसे पार की जाये मेरे माज़ी के ज़ख़्म भरने लगे, आज फिर कोई भूल की जाये बोतलें खोल के तो पी बरसों, आज दिल खोल के भी पी जाये

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें - राहत इन्दौरी

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन, जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन, पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो, फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर, ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को, ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें आओ शहर में नये दोस्त बनायें "राहत" आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें

उसकी कत्थई आंखों में - राहत इन्दौरी

उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब चाक़ू वाक़ू, छुरियां वुरियां, ख़ंजर वंजर सब जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे रूठे हैं चादर वादर, तकिया वकिया, बिस्तर विस्तर सब मुझसे बिछड़ कर वह भी कहां अब पहले जैसी है फीके पड़ गए कपड़े वपड़े, ज़ेवर वेवर सब

रीछ का बच्चा - नज़ीर अकबराबादी

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल मुक़्क़ीश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें एक तरफ़ को थीं, पीरओ-जवानों की कतारें कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़

है दुनिया जिस का नाम मियाँ - नज़ीर अकबराबादी

है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे जो याँ का रहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है शम्शीर तीर बन्दूक़ स