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कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी (बशीर बद्र)

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता कोई काँटा चुभा नहीं होता दिल अगर फूल सा नहीं होता मैं भी शायद बुरा नहीं होता वो अगर बेवफ़ा नहीं होता जी बहुत चाहता है सच बोलें क्या करें हौसला नहीं होता रात का इंतज़ार कौन करे आज-कल दिन में क्या नहीं होता गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है मुद्दतों सामना नहीं होता

सोचा नहीं अच्छा बुरा - बशीर बद्र

सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं - बशीर बद्र