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दिसंबर, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कितना दुश्वार है दुनिया (वसीम बरेलवी)

कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी वसीम बरेलवी

चेतक गाथा

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था जो तनिक हवा से बाग हिली लेकर सवार उड जाता था राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड जाता था गिरता न कभी चेतक तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर वह आसमान का घोड़ा था कौशल दिखलाया चालों में उड़ गया भयानक भालों में निर्भीक गया वो ढालों में सरपट दौड़ा करवालों में है यहीं रहा अब यहाँ नहीं है वहीँ रहा अब वहां नहीं थी जगह न कोई जहाँ नहीं किस अरि-मस्तक पर कहाँ नहीं निर्भीक गया वह ढालों में सरपट दौडा करबालों में फँस गया शत्रु की चालों में बढते नद सा वह लहर गया फिर गया गया फिर ठहर गया बिकराल बज्रमय बादल सा अरि की सेना पर घहर गया। भाला गिर गया गिरा निशंग हय टापों से खन गया अंग बैरी समाज रह गया दंग घोड़े का ऐसा देख रंग (श्री श्याम नारायण पाण्डेय)

झाँसी वाली रानी (सुभद्रा कुमारी चौहान)

सिंहासन हिल उठे राजवंषों ने भृकुटी तनी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सब ने मन में ठनी थी. चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. कानपुर के नाना की मुह बोली बहन छब्बिली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वो संतान अकेली थी, नाना के सॅंग पढ़ती थी वो नाना के सॅंग खेली थी बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी. वीर शिवाजी की गाथाएँ उसकी याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वो स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना यह थे उसके प्रिय खिलवाड़. महाराष्‍ट्रा-कुल-देवी उसकी भी आराध्या भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ बन आई रानी लक्ष्मी बाई झाँ

राणा प्रताप की तलवार (श्याम नारायण पाण्डेय)

चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को। राणा प्रताप सिर काट काट, करता था सफल जवानी को॥ कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को। तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को॥ वैरी दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी। था शोर मौत से बचो बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी॥ पैदल, हयदल, गजदल में, छप छप करती वह निकल गई। क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर, देखो चम-चम वह निकल गई॥ क्षण इधर गई क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई। था प्रलय चमकती जिधर गई, क्षण शोर हो गया किधर गई॥ लहराती थी सिर काट काट, बलखाती थी भू पाट पाट। बिखराती अवयव बाट बाट, तनती थी लोहू चाट चाट॥ क्षण भीषण हलचल मचा मचा, राणा कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने को यह, रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥ (हल्दीघाटी - श्याम नारायण पाण्डेय)