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कितना दुश्वार है दुनिया (वसीम बरेलवी)

कितना दुश्वार है दुनिया ये हुनर आना भी तुझी से फ़ासला रखना तुझे अपनाना भी ऐसे रिश्ते का भरम रखना बहुत मुश्किल है तेरा होना भी नहीं और तेरा कहलाना भी वसीम बरेलवी

चेतक गाथा

रण बीच चौकड़ी भर-भर कर चेतक बन गया निराला था राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था जो तनिक हवा से बाग हिली लेकर सवार उड जाता था राणा की पुतली फिरी नहीं तब तक चेतक मुड जाता था गिरता न कभी चेतक तन पर राणा प्रताप का कोड़ा था वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर वह आसमान का घोड़ा था कौशल दिखलाया चालों में उड़ गया भयानक भालों में निर्भीक गया वो ढालों में सरपट दौड़ा करवालों में है यहीं रहा अब यहाँ नहीं है वहीँ रहा अब वहां नहीं थी जगह न कोई जहाँ नहीं किस अरि-मस्तक पर कहाँ नहीं निर्भीक गया वह ढालों में सरपट दौडा करबालों में फँस गया शत्रु की चालों में बढते नद सा वह लहर गया फिर गया गया फिर ठहर गया बिकराल बज्रमय बादल सा अरि की सेना पर घहर गया। भाला गिर गया गिरा निशंग हय टापों से खन गया अंग बैरी समाज रह गया दंग घोड़े का ऐसा देख रंग (श्री श्याम नारायण पाण्डेय)

झाँसी वाली रानी (सुभद्रा कुमारी चौहान)

सिंहासन हिल उठे राजवंषों ने भृकुटी तनी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सब ने मन में ठनी थी. चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. कानपुर के नाना की मुह बोली बहन छब्बिली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वो संतान अकेली थी, नाना के सॅंग पढ़ती थी वो नाना के सॅंग खेली थी बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी. वीर शिवाजी की गाथाएँ उसकी याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वो स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना यह थे उसके प्रिय खिलवाड़. महाराष्‍ट्रा-कुल-देवी उसकी भी आराध्या भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ बन आई रानी लक्ष्मी बाई झाँ

राणा प्रताप की तलवार (श्याम नारायण पाण्डेय)

चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को। राणा प्रताप सिर काट काट, करता था सफल जवानी को॥ कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को। तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को॥ वैरी दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी। था शोर मौत से बचो बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी॥ पैदल, हयदल, गजदल में, छप छप करती वह निकल गई। क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर, देखो चम-चम वह निकल गई॥ क्षण इधर गई क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई। था प्रलय चमकती जिधर गई, क्षण शोर हो गया किधर गई॥ लहराती थी सिर काट काट, बलखाती थी भू पाट पाट। बिखराती अवयव बाट बाट, तनती थी लोहू चाट चाट॥ क्षण भीषण हलचल मचा मचा, राणा कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने को यह, रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥ (हल्दीघाटी - श्याम नारायण पाण्डेय)

इतना ना मुझ से तू प्यार बढ़ा......

इतना ना मुझ से तू प्यार बढ़ा, के मैं एक बादल आवारा कैसे किसी का सहारा बनू, मैं खुद बेघर बेचारा इसलिए तुझ से मैं प्यार करू, के तू एक बादल आवारा जनम जनम से हूँ साथ तेरे, हैं नाम मेरा जल की धारा मुझे एक जगह आराम नहीं, रुक जाना मेरा काम नहीं मेरा साथ कहा तक दोगी तुम मैं देस बिदेस का बंजारा ओ नील गगन के दीवाने, तू प्यार ना मेरा पहचाने मैं तब तक साथ चलू तेरे, जब तक ना कहे तू मैं हारा क्यों प्यार में तू नादान बने, एक पागल का अरमान बने अब लौट के जाना मुश्किल हैं, मैने छोड़ दिया हैं जग सारा Heard this beautiful song from film Chhaaya. I am amazed at the simplicity of the lyrics (By Rajinder Krishan) and the depth that they convey.....  The Hero has been compared with a cloud, full of desires and ambitions, but also perhaps unclear of exact goals. His only desire is to soar up and touch the sky.  The Heroine on the other hand, simply loves the hero for what he is and is willing to forsake the entire world for her beloved. The duet contrasts these two aspects: ambition and uncomplicated lov

मुहाजिर नामा (मुन्नवर राणा ) Muhajir Nama - By Munawwar Rana

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं, तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं । कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है, कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं । नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में, पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं । अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी, वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं । जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है, वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं । यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद, हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं । हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है, हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं । हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है, अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं । सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे, दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं । हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं, अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं । गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब, इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं । हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए

पूरा दुख और आधा चाँद....

पूरा दुख और आधा चाँद हिज्र की शब और ऐसा चाँद इतने घने बादल के पीछे कितना तन्हा होगा चाँद मेरी करवट पर जाग उठे नींद का कितना कच्चा चाँद सहरा सहरा भटक रहा है अपने इश्क़ में सच्चा चाँद रात के शायद एक बजे हैं सोता होगा मेरा चाँद (स्वर्गीय सुश्री परवीन शाकिर)

ज़हन में पानी के बादल अगर आये होते - वसीम बरेलवी

ज़हन में पानी के बादल अगर आये होते मैंने मिटटी के घरोंदे ना बनाये होते धूप के एक ही मौसम ने जिन्हें तोड़ दिया इतने नाज़ुक भी ये रिश्ते न बनाये होते डूबते शहर मैं मिटटी का मकान गिरता ही तुम ये सब सोच के मेरी तरफ आये होते धूप के शहर में इक उम्र ना जलना पड़ता हम भी ए काश किसी पेड के साये होते फल पडोसी के दरख्तों पे ना पकते तो वसीम मेरे आँगन में ये पत्थर भी ना आये होते - वसीम बरेलवी 

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी (बशीर बद्र)

कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता कोई काँटा चुभा नहीं होता दिल अगर फूल सा नहीं होता मैं भी शायद बुरा नहीं होता वो अगर बेवफ़ा नहीं होता जी बहुत चाहता है सच बोलें क्या करें हौसला नहीं होता रात का इंतज़ार कौन करे आज-कल दिन में क्या नहीं होता गुफ़्तगू उन से रोज़ होती है मुद्दतों सामना नहीं होता

सोचा नहीं अच्छा बुरा - बशीर बद्र

सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं मांगा खुदा से रात दिन तेरे सिवा कुछ भी नहीं देखा तुझे सोचा तुझे चाहा तुझे पूजा तुझे मेरी ख़ता मेरी वफ़ा तेरी ख़ता कुछ भी नहीं जिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाये रात भर भेजा वही काग़ज़ उसे हमने लिखा कुछ भी नहीं इक शाम की दहलीज़ पर बैठे रहे वो देर तक आँखों से की बातें बहुत मुँह से कहा कुछ भी नहीं दो चार दिन की बात है दिल ख़ाक में सो जायेगा जब आग पर काग़ज़ रखा बाकी बचा कुछ भी नहीं अहसास की ख़ुश्बू कहाँ आवाज़ के जुगनू कहाँ ख़ामोश यादों के सिवा घर में रहा कुछ भी नहीं - बशीर बद्र