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छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपाल दस नीरज

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है। सपना क्या है, नयन सेज पर, सोया हुआ आँख का पानी और टूटना है उसका ज्यों, जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है। खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी जैसे रात उतार चांदनी, पहने सुबह धूप की धोती वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों! चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आई पनघट पर, लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर, तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों! लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है। लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गन्ध फूल की, तूफानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बन्द न हुई धूल की, नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों! कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!
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मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ - सूरदास

मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ । मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ? कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात । पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥ गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात । चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥ तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै । मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥ सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत । सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥ भावार्थ :-- (बालक श्रीकृष्ण कह रहे हैं-) माँ ! दाऊ भैया (बलराम जी) ने मुझे बहुत चिढ़ाया है । वे मुझसे कहते हैं-तुझे तो खरीदा गया था, तू यशोदा मैया का पुत्र थोड़े ही है। माँ, क्या करूँ, इस बात पर मुझे बड़ा क्रोध आता है, इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता ।  दाऊ बार-बार कहते हैं - तेरी माँ कौन है ? तेरे पिता कौन हैं ? नन्दबाबा तो गोरे हैं, यशोदा मैया भी गोरी हैं, तू कैसे साँवले अंग वाला हो गया ? बाकी ग्वाल बाल भी मेरे ऊपर इस बात पर हँसते हैं । (बालक कृष्ण अपना गुस्सा माँ पर निकालते हुए कहते हैं ) माँ तू भी हमेशा मुझे ही मारती रहती है, दाऊ पर कभी गुस्सा भी न

आज जाने की ज़िद ना करो ....

यू tube : https://www.youtube.com/watch?v=hBvdIsBmQ6g फरीदा खानम साहिबा का यह गीत बड़ा सम्मोहक है. श्रृंगार रस से ओतप्रोत यह गीत, बड़ा “suggestive” है. शब्दों के बीच में फरीदा जी एक ऐसा भाव व्यक्त कर दे रही हैं जो किसी को भी आकर्षित कर ले. इस गीत की खूबसूरती यही है कि कुछ प्रत्यक्ष नहीं कहा जा रहा है. बस एक संकेत दिया जा रहा है; यह संकेत बड़ा feminine है, बड़ा प्रलोभी है, और जानबूझ कर दिया जा रहा है! कोई भूल न करे; यह मासूम प्रेम का गीत नहीं है और न ही विरह का गीत है !! बहुत ही खूब गाया है!!

मनुष्य और सर्प (कवि : श्री रामधारी सिंह दिनकर)

चल रहा महाभारत का रण, जल रहा धरित्री का सुहाग। फट कुरुक्षेत्र में खेल रही, नर के भीतर की कुटिल आग।।  वाजियों-गजों की लोथों में, गिर रहे मनुज के छिन्न अंग। बह रहा चतुष्पद और द्विपद का, रुधिर मिश्र हो एक संग।। गत्वर, गैरेय सुघर भूधर से, लिए रक्त-रंजित शरीर। थे जूझ रहे कौंतेय-कर्ण, क्षण-क्षण करते गर्जन गंभीर।। दोनों रण-कुशल धनुर्धर नर, दोनों सम बल, दोनों समर्थ। दोनों पर दोनों की अमोघ, थी विशिख वृष्टि हो रही व्यर्थ।। इतने में शर के लिए कर्ण ने, देखा ज्यों अपना निषंग । तरकस में से फुंकार उठा, कोई प्रचंड विषधर भुजंग।।  कहता कि कर्ण ! मैं अश्वसेन, विश्रुत भुजंगों का स्वामी हूँ। जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूँ।। बस एक बार कर कृपा, धनुष पर चढ़ शख्य तक जाने दे। इस महाशत्रु को अभी तुरत, स्पंदन में मुझे सुलाने दे।। कर वमन गरल जीवन-भर का, संचित प्रतिशोध, उतारूँगा। तू मुझे सहारा दे, बढ़कर मैं अभी पार्थ को मारूँगा।। राधेय ज़रा हँसकर बोला, रे कुटिल ! बात क्या कहता है? जय का समस्त साधन नर का, अपनी बाहों में रहता है।। उस पर भी साँप

रसिक बलमा

https://www.youtube.com/watch?v=QF1lNr-LniI रसिक बलमा, हाय दिल क्यों लगाया, तोसे दिल क्यों लगाया, जैसे रोग लगाया जैसे रोग लगाया…रसिक बलमा….. Amazing rendering by Lata ji. One of few songs where Mukhda and Antara both are riveting. Note the tenderness in the voice of Lataji as first Antara begins, signalling a woman in deep love. नायिका प्रेम में विवश, अपनी कारुणिक दशा का विवरण कर रही है. (सूरत वो प्यारी प्यारी) - The hero is described as a fleeting lover (रसिक, possibly insincere), but she still recalls his handsome personality हसरत जयपुरी लिखते हैं - " नेहा (स्नेह, अर्थात प्रेम) लगा के हारी" प्रेम ही ऐसा अनोखा भाव है जहाँ "हार" को भी व्यक्ति मधुर भाव से स्वीकार लेता है, "मैं" का भाव पीछे हो जाता है, और प्रियतम ही सब कुछ हो जाता है. और भी कई भाव हैं जो शब्दातीत हैं. अभी मेरी सुई अटक गयी है, और बार बार इसी गीत को सुने जा रहा हूँ.

समर निंद्य है - रामधारी सिंह "दिनकर" - कुछ चयनित पंक्तियाँ

समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है? सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो। हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ? शान्ति नहीं तब तक; जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो। न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जब तक न्याय न आता, जैसा भी हो महल शान्ति का, सुदृढ़ नहीं रह पाता। और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था, में सुख-भोग सुलभ है, उनके लिये शान्ति ही जीवन -सार, सिद्धि दुर्लभ है। पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पी कर तन का, जीती है यह शान्ति, दाह, समझो कुछ उनके मन का। स्वत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें, बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें? क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई, धर्मराज व्यंजित करते तुम, मानव की कदराई। पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला,

समर निंद्य है - रामधारी सिंह "दिनकर" - पूर्ण रचना

समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी, बनी हुई सरला है? सुख-समृद्धि का विपुल कोष संचित कर कल, बल, छल से, किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से। सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो। हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ? सुख का सम्यक-रूप विभाजन, जहाँ नीति से, नय से संभव नहीं; अशान्ति दबी हो, जहाँ खड्ग के भय से, जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति को सत्ताधारी, जहाँ सूत्रधर हों समाज के, अन्यायी, अविचारी; नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के, जहाँ न आदर पायें; जहाँ सत्य कहने वालों के, सीस उतारे जायें; जहाँ खड्ग-बल एकमात्र, आधार बने शासन का; दबे क्रोध से भभक रहा हो, हृदय जहाँ जन-जन का; सहते-सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो; समझ कापुरुष अपने को, धिक्कार रहा जन-जन हो; अहंकार के साथ घृणा का, जहाँ द्वंद हो जारी; ऊपर, शान्ति, तल