मैया मोहि दाऊ बहुत खिझायौ ।
मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात ।
चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥
मोसौ कहत मोल कौ लीन्हौ, तू जसुमति कब जायौ ?
कहा करौं इहि रिस के मारैं खेलन हौं नहिं जात ।
पुनि-पुनि कहत कौन है माता को है तेरौ तात ॥
गोरे नंद जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात ।
चुटुकी दै-दै ग्वाल नवावत, हँसत, सबै मुसुकात ॥
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहि कबहुँ न खीझै ।
मोहन-मुख रिस की ये बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै ॥
सुनहु कान्ह, बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत ।
सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत ॥
भावार्थ :--
(बालक श्रीकृष्ण कह रहे हैं-) माँ ! दाऊ भैया (बलराम जी) ने मुझे बहुत चिढ़ाया है । वे मुझसे कहते हैं-तुझे तो खरीदा गया था, तू यशोदा मैया का पुत्र थोड़े ही है। माँ, क्या करूँ, इस बात पर मुझे बड़ा क्रोध आता है, इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता ।
(बालक श्रीकृष्ण कह रहे हैं-) माँ ! दाऊ भैया (बलराम जी) ने मुझे बहुत चिढ़ाया है । वे मुझसे कहते हैं-तुझे तो खरीदा गया था, तू यशोदा मैया का पुत्र थोड़े ही है। माँ, क्या करूँ, इस बात पर मुझे बड़ा क्रोध आता है, इसी कारण मैं खेलने भी नहीं जाता ।
दाऊ बार-बार कहते हैं - तेरी माँ कौन है ? तेरे पिता कौन हैं ? नन्दबाबा तो गोरे हैं, यशोदा मैया भी गोरी हैं, तू कैसे साँवले अंग वाला हो गया ?
बाकी ग्वाल बाल भी मेरे ऊपर इस बात पर हँसते हैं । (बालक कृष्ण अपना गुस्सा माँ पर निकालते हुए कहते हैं ) माँ तू भी हमेशा मुझे ही मारती रहती है, दाऊ पर कभी गुस्सा भी नहीं होती है।
सूरदास जी कहते हैं - श्याम सुन्दर जी के मुख से ऐसी क्रोध भरी बातें सुनकर यशोदा जी को (मन-ही-मन) बड़ा आनंद मिल रहा है । (वे कृष्ण को मनाते हुए कहती हैं) अरे कान्हा! सुनो, ये बलराम तो जन्म से ही धूर्त है (अर्थात उसकी बात पर कान न धरो), मुझे गोधन (गायों) की शपथ, मैं ही तुम्हारी माँ हूँ और तुम मेरे पुत्र हो ।
मेरे विचार:
सूरदास के पद वात्सल्य भाव से ओतप्रोत हैं. कभी कभी कवि इस स्तर की बात कर देता है कि हम तथाकथित सोशल साइंटिस्ट, भौंचक्के रह जाते हैं. आखिर यह अँधा अनगढ़ कवि, इस रहस्य को कैसे समझ गया.
Rationality की अपनी सीमा होती है. भक्ति और प्रेम का मार्ग कुछ ऐसे सम्बन्ध स्थापित कर देता है, जो फैक्ट्स के झूठे बन्धनों से दूर होते हैं
प्रेम की इस पराकाष्ठा में सत्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता, अपितु सत्य ही परिवर्तित हो जाता है. प्रेम मार्ग दर्शाता है कि रैशनल सोच की अपनी सीमा है . ऐसा बहुत कुछ है जो कोरे ज्ञान की सीमा से परे है. यशोदा का यह वचन, उनकी आत्मा, उनके पूरे अस्तित्व से निकला हुआ है और किसी भी सांसारिक सत्य से बड़ा सत्य है - सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत
इस बात के लिए वे अपनी आजीविका (गोधन) की भी शपथ उठाने में एक पल नहीं झिझकतीं. आप लोग करते रहो हिस्ट्री और वास्तविकता की बातें, यशोदा को कोई संदेह नहीं है - वो स्पष्ट है. उसके भाव के सामने तथ्य छोटा पड़ जाता है. सच ही है - यशोदा ही कृष्ण की माँ हैं.
और सूरदास जी अंधे अनगढ़ हम हैं, और अज्ञानी भी हम हैं . अभी हमें बहुत कुछ सीखना हैं.
मेरे विचार:
सूरदास के पद वात्सल्य भाव से ओतप्रोत हैं. कभी कभी कवि इस स्तर की बात कर देता है कि हम तथाकथित सोशल साइंटिस्ट, भौंचक्के रह जाते हैं. आखिर यह अँधा अनगढ़ कवि, इस रहस्य को कैसे समझ गया.
Rationality की अपनी सीमा होती है. भक्ति और प्रेम का मार्ग कुछ ऐसे सम्बन्ध स्थापित कर देता है, जो फैक्ट्स के झूठे बन्धनों से दूर होते हैं
प्रेम की इस पराकाष्ठा में सत्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता, अपितु सत्य ही परिवर्तित हो जाता है. प्रेम मार्ग दर्शाता है कि रैशनल सोच की अपनी सीमा है . ऐसा बहुत कुछ है जो कोरे ज्ञान की सीमा से परे है. यशोदा का यह वचन, उनकी आत्मा, उनके पूरे अस्तित्व से निकला हुआ है और किसी भी सांसारिक सत्य से बड़ा सत्य है - सूर स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत
इस बात के लिए वे अपनी आजीविका (गोधन) की भी शपथ उठाने में एक पल नहीं झिझकतीं. आप लोग करते रहो हिस्ट्री और वास्तविकता की बातें, यशोदा को कोई संदेह नहीं है - वो स्पष्ट है. उसके भाव के सामने तथ्य छोटा पड़ जाता है. सच ही है - यशोदा ही कृष्ण की माँ हैं.
और सूरदास जी अंधे अनगढ़ हम हैं, और अज्ञानी भी हम हैं . अभी हमें बहुत कुछ सीखना हैं.
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