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समर निंद्य है - रामधारी सिंह "दिनकर" - कुछ चयनित पंक्तियाँ

समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है? सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो। हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ? शान्ति नहीं तब तक; जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो। न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जब तक न्याय न आता, जैसा भी हो महल शान्ति का, सुदृढ़ नहीं रह पाता। और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था, में सुख-भोग सुलभ है, उनके लिये शान्ति ही जीवन -सार, सिद्धि दुर्लभ है। पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पी कर तन का, जीती है यह शान्ति, दाह, समझो कुछ उनके मन का। स्वत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें, बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें? क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई, धर्मराज व्यंजित करते तुम, मानव की कदराई। पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला,

समर निंद्य है - रामधारी सिंह "दिनकर" - पूर्ण रचना

समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी, बनी हुई सरला है? सुख-समृद्धि का विपुल कोष संचित कर कल, बल, छल से, किसी क्षुधित का ग्रास छीन, धन लूट किसी निर्बल से। सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो। हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ? सुख का सम्यक-रूप विभाजन, जहाँ नीति से, नय से संभव नहीं; अशान्ति दबी हो, जहाँ खड्ग के भय से, जहाँ पालते हों अनीति-पद्धति को सत्ताधारी, जहाँ सूत्रधर हों समाज के, अन्यायी, अविचारी; नीतियुक्त प्रस्ताव सन्धि के, जहाँ न आदर पायें; जहाँ सत्य कहने वालों के, सीस उतारे जायें; जहाँ खड्ग-बल एकमात्र, आधार बने शासन का; दबे क्रोध से भभक रहा हो, हृदय जहाँ जन-जन का; सहते-सहते अनय जहाँ मर रहा मनुज का मन हो; समझ कापुरुष अपने को, धिक्कार रहा जन-जन हो; अहंकार के साथ घृणा का, जहाँ द्वंद हो जारी; ऊपर, शान्ति, तल