समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है,
जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है?
सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो।
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो।
सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ?
शान्ति नहीं तब तक; जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जब तक न्याय न आता,
जैसा भी हो महल शान्ति का, सुदृढ़ नहीं रह पाता।
और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था, में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिये शान्ति ही जीवन -सार, सिद्धि दुर्लभ है।
पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पी कर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह, समझो कुछ उनके मन का।
स्वत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें?
पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख कहलायी दासी।
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष, तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का, कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज, कोमल हो कर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो?
तीन दिवस तक पथ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छंद, अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर "त्राहि-त्राहि", करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बंधन में।
सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशील क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है।
भूल रहे हो धर्मराज, तुम, अभी हिंस्र भूतल है,
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है, खड़ा चतुर्दिक छल है।
क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन, अगणित अभी यहाँ हैं,
बढे़ शान्ति की लता हाय, वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
शान्ति ! सुशीतल शान्ति ! कहाँ वह समता देने वाली?
देखो, आज विषमता की ही वह करती रखवाली।
आनन सरल, वचन मधुमय है, तन पर शुभ्र वसन है,
बचो युधिष्ठिर ! इस नागिन का विष से भरा दशन है।
जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है?
सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो,
शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो।
हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो,
अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो।
सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी,
शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ?
शान्ति नहीं तब तक; जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो,
नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो।
न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जब तक न्याय न आता,
जैसा भी हो महल शान्ति का, सुदृढ़ नहीं रह पाता।
और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था, में सुख-भोग सुलभ है,
उनके लिये शान्ति ही जीवन -सार, सिद्धि दुर्लभ है।
पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पी कर तन का,
जीती है यह शान्ति, दाह, समझो कुछ उनके मन का।
स्वत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें,
बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें?
क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई,
धर्मराज व्यंजित करते तुम, मानव की कदराई।
धर्मराज व्यंजित करते तुम, मानव की कदराई।
पिया भीम ने विष, लाक्षागृह जला, हुए वनवासी,
केशकर्षिता प्रिया सभा-सम्मुख कहलायी दासी।
क्षमा, दया, तप, त्याग, मनोबल, सबका लिया सहारा;
पर नर-व्याघ्र सुयोधन तुमसे कहो, कहाँ कब हारा?
क्षमाशील हो रिपु-समक्ष, तुम हुए विनत जितना ही,
दुष्ट कौरवों ने तुमको, कायर समझा उतना ही।
अत्याचार सहन करने का, कुफल यही होता है,
पौरुष का आतंक मनुज, कोमल हो कर खोता है।
क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो।
उसको क्या, जो दंतहीन, विषरहित, विनीत, सरल हो?
तीन दिवस तक पथ माँगते रघुपति सिन्धु-किनारे,
बैठे पढ़ते रहे छंद, अनुनय के प्यारे-प्यारे।
उत्तर में जब एक नाद भी, उठा नहीं सागर से,
उठी अधीर धधक पौरुष की, आग राम के शर से।
सिन्धु देह धर "त्राहि-त्राहि", करता आ गिरा शरण में,
चरण पूज, दासता ग्रहण की, बँधा मूढ़ बंधन में।
सच पूछो तो शर में ही, बसती है दीप्ति विनय की
सन्धि-वचन संपूज्य उसी का, जिसमें शक्ति विजय की।
सहनशील क्षमा, दया को, तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके, पीछे जब जगमग है।
भूल रहे हो धर्मराज, तुम, अभी हिंस्र भूतल है,
खड़ा चतुर्दिक अहंकार है, खड़ा चतुर्दिक छल है।
क्योंकि युधिष्ठिर एक, सुयोधन, अगणित अभी यहाँ हैं,
बढे़ शान्ति की लता हाय, वे पोषक द्रव्य कहाँ हैं?
शान्ति ! सुशीतल शान्ति ! कहाँ वह समता देने वाली?
देखो, आज विषमता की ही वह करती रखवाली।
आनन सरल, वचन मधुमय है, तन पर शुभ्र वसन है,
बचो युधिष्ठिर ! इस नागिन का विष से भरा दशन है।
कुरुक्षेत्र के अंश.
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