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जून, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

माँ

ना स्वर की आई थी समझ और न शब्दों का ज्ञान था, फ़िर भी माँ कह पाना तुझको माँ कितना आसान था, मिश्री में घुली लोरी सुन जब नींद मुझे आ जाती थी, सुंदर से सपने तुम मेरे तकिये पे रख जाती थी, मेरी ऑंखें देख के मन की बातें तुम बुन लेती थी , मेरी खामोशी को जाने तुम कैसे सुन लेती थी, मेरी नन्ही उंगली तेरी मुट्ठी मे छिप जाती थी, कितनी हिम्मत तब मेरे इन क़दमों को मिल जाती थी, चोट मुझे लगती थी लेकिन दर्द तो तुम ही सहती थी, मेरी आँखों की पीड़ा तेरी आँखों से बहती थी, तेरे आँचल मे छुपने को मन सौ बार मचलता है, माँ तेरी गोदी में अब भी मेरा बचपन पलता है (रचयिता का नाम नहीं पता है )