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जनवरी, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

लाद चलेगा बंजारा - नज़ीर अकबराबादी

टुक हिर्स ओ हवस को छोड़ मियां मत देस-विदेस फिरे मारा, कज्जाक अजल का लूटे है, दिन-रात बजाकर नक्कारा, क्या बधिया, भैसा, बैल, शुतुर, क्या गोने पल्ला सर भारा, क्या गेहूं, चावल, मोंठ, मटर, क्या आग-धुवा और अंगारा, सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। गर तू है लक्खी बंजारा और खेप भी तेरी भारी है, एक गाफिल, तुझसे भी चतुरा, इक और बड़ा व्योपारी है, क्या शक्कर-मिस्री, कन्द, गरी, क्या सांभर मीठी खारी है, क्या दाख मुनक्के सोंठ, मिर्च, क्या केसर, लोंग, सुपारी है, सब ठाठ पड़ा, रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। तू बधिया लावे बैल भरे, जो पूरब पश्छिम जावेगा, या सूद बढ़ाकर लावेगा, या टोटा-घाटा पावेगा, कज्जाक अजल का रस्ते में, जब भाला मार गिरावेगा, धन-दौलत, नाती, पोता क्या, इक कुनबा काम न आवेगा, सब ठाठ पड़ा रहा जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा। हर मंजिल में अब साथ तेरे, ये जितना डेरा-डांडा है, जर, दाम, दिरम का भांडा है, बन्दूक, सिपर और खांडा है, जब नायक तन का निकल गया, जो मुल्कों-मुल्कों हांडा है, फिर हांडा है ना भांडा है, ना हलवा है ना भांडा है, सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा ब

बचपन -- नज़ीर अकबराबादी

क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले । निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।। चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले । हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।             मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।             क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।।                         दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है । आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।। पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है । याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।             कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले ।             क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।।                             मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना । ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।। उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना । जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना ।।             माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले ।             क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।।                              कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं । गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुँह में घोटते

आदमी - नज़ीर अकबराबादी

दुनिया में बादशाह है सो है वह भी आदमी और मुफ़लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी ज़रदार बेनवा है सो है वो भी आदमी निअमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी (2) मसज़‍िद भी आदमी ने बनाई है यां मियाँ बनते हैं आदमी ही इमाम और खुतबाख्‍वाँ पढ़ते हैं आदमी ही कुरआन और नमाज़ यां और आदमी ही चुराते हैं उनकी जूतियाँ जो उनको ताड़ता है सो है वो भी आदमी (3) यां आदमी पै जान को वारे है आदमी और आदमी पै तेग को मारे है आदमी पगड़ी भी आदमी को उतारे है आदमी चिल्‍ला को पुकारे आदमी को है आदमी और सुनके दौड़ता है सो है वो भी आदमी (4) अशराफ़ और कमीने से शाह ता वज़ीर ये आदमी ही करते हैं सब कारे दिलपज़ीर यां आदमी मुरीद है और आदमी ही पीर अच्‍छा भी आदमी कहाता है ए नज़ीर और सबमें जो बुरा है सो है वो भी आदमी

मुक्तक - कुमार विश्वास

बहुत टूटा बहुत बिखरा थपेडे सह नही पाया हवाऒं के इशारों पर मगर मै बह नही पाया रहा है अनसुना और अनकहा ही प्यार का किस्सा कभी तुम सुन नही पायी कभी मै कह नही पाया बस्ती बस्ती घोर उदासी पर्वत पर्वत खालीपन मन हीरा बेमोल बिक गया घिस घिस रीता तन चंदन इस धरती से उस अम्बर तक दो ही चीज़ गज़ब की है एक तो तेरा भोलापन है एक मेरा दीवानापन जो धरती से अम्बर जोड़े , उसका नाम मोहब्बत है , जो शीशे से पत्थर तोड़े , उसका नाम मोहब्बत है , कतरा कतरा सागर तक तो ,जाती है हर उमर मगर , बहता दरिया वापस मोड़े , उसका नाम मोहब्बत है . पनाहों में जो आया हो तो उस पर वार करना क्या जो दिल हारा हुआ हो उस पर फिर अधिकार करना क्या मुहब्बत का मज़ा तो डूबने की कश्मकश मे है हो गर मालूम गहराई तो दरिया पार करना क्या तुम्हारे पास हूँ लेकिन जो दूरी है समझता हूँ तुम्हारे बिन मेरी हस्ती अधूरी है समझता हूँ तुम्हे मै भूल जाऊँगा ये मुमकिन है नही लेकिन तुम्ही को भूलना सबसे ज़रूरी है समझता हूँ

कोई दीवाना कहता है - कुमार विश्वास

कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है ! मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है !! मैं तुझसे दूर कैसा हूँ , तू मुझसे दूर कैसी है ! ये तेरा दिल समझता है या मेरा दिल समझता है !! मोहब्बत एक अहसासों की पावन सी कहानी है ! कभी कबिरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है !! यहाँ सब लोग कहते हैं, मेरी आंखों में आँसू हैं ! जो तू समझे तो मोती है, जो ना समझे तो पानी है !! समंदर पीर का अन्दर है, लेकिन रो नही सकता ! यह आँसू प्यार का मोती है, इसको खो नही सकता !! मेरी चाहत को दुल्हन तू बना लेना, मगर सुन ले ! जो मेरा हो नही पाया, वो तेरा हो नही सकता !! भ्रमर कोई कुमुदुनी पर मचल बैठा तो हंगामा! हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा!! अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मोहब्बत का! मैं किस्से को हकीक़त में बदल बैठा तो हंगामा!!

अपना सौदा - जावेद अख्तर

आज मैंने अपना फिर सौदा किया और फिर मैं दूर से देखा किया जिन्‍दगी भर मेरे काम आए असूल एक एक करके मैं उन्‍हें बेचा किया कुछ कमी अपनी वफ़ाओं में भी थी तुम से क्‍या कहते कि तुमने क्‍या किया हो गई थी दिल को कुछ उम्‍मीद सी खैर तुमने जो किया अच्‍छा किया

दोस्ती जब किसी से की जाये - राहत इन्दौरी

दोस्ती जब किसी से की जाये दुश्मनों की भी राय ली जाये मौत का ज़हर है फ़िज़ाओं में, अब कहाँ जा के साँस ली जाये बस इसी सोच में हूँ डूबा हुआ, ये नदी कैसे पार की जाये मेरे माज़ी के ज़ख़्म भरने लगे, आज फिर कोई भूल की जाये बोतलें खोल के तो पी बरसों, आज दिल खोल के भी पी जाये

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें - राहत इन्दौरी

इन्तेज़मात नये सिरे से सम्भाले जायें जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जायें मेरा घर आग की लपटों में छुपा है लेकिन, जब मज़ा है तेरे आँगन में उजाले जायें ग़म सलामत है तो पीते ही रहेंगे लेकिन, पहले मैख़ाने की हालत सम्भाले जायें ख़ाली वक़्तों में कहीं बैठ के रोलें यारो, फ़ुर्सतें हैं तो समन्दर ही खगांले जायें ख़ाक में यूँ न मिला ज़ब्त की तौहीन न कर, ये वो आँसू हैं जो दुनिया को बहा ले जायें हम भी प्यासे हैं ये एहसास तो हो साक़ी को, ख़ाली शीशे ही हवाओं में उछाले जायें आओ शहर में नये दोस्त बनायें "राहत" आस्तीनों में चलो साँप ही पाले जायें

उसकी कत्थई आंखों में - राहत इन्दौरी

उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर मंतर सब चाक़ू वाक़ू, छुरियां वुरियां, ख़ंजर वंजर सब जिस दिन से तुम रूठीं मुझ से रूठे रूठे हैं चादर वादर, तकिया वकिया, बिस्तर विस्तर सब मुझसे बिछड़ कर वह भी कहां अब पहले जैसी है फीके पड़ गए कपड़े वपड़े, ज़ेवर वेवर सब

रीछ का बच्चा - नज़ीर अकबराबादी

कल राह में जाते जो मिला रीछ का बच्चा ले आए वही हम भी उठा रीछ का बच्चा सौ नेमतें खा-खा के पला रीछ का बच्चा जिस वक़्त बड़ा रीछ हुआ रीछ का बच्चा जब हम भी चले, साथ चला रीछ का बच्चा था हाथ में इक अपने सवा मन का जो सोटा लोहे की कड़ी जिस पे खड़कती थी सरापा कांधे पे चढ़ा झूलना और हाथ में प्याला बाज़ार में ले आए दिखाने को तमाशा आगे तो हम और पीछे वह था रीछ का बच्चा था रीछ के बच्चे पे वह गहना जो सरासर हाथों में कड़े सोने के बजते थे झमक कर कानों में दुर, और घुँघरू पड़े पांव के अंदर वह डोर भी रेशम की बनाई थी जो पुरज़र जिस डोर से यारो था बँधा रीछ का बच्चा झुमके वह झमकते थे, पड़े जिस पे करनफूल मुक़्क़ीश की लड़ियों की पड़ी पीठ उपर झूल और उनके सिवा कितने बिठाए थे जो गुलफूल यूं लोग गिरे पड़ते थे सर पांव की सुध भूल गोया वह परी था, कि न था रीछ का बच्चा एक तरफ़ को थीं सैकड़ों लड़कों की पुकारें एक तरफ़ को थीं, पीरओ-जवानों की कतारें कुछ हाथियों की क़ीक़ और ऊंटों की डकारें गुल शोर, मज़े भीड़ ठठ, अम्बोह बहारें जब हमने किया लाके खड़ा रीछ का बच्चा कहता था कोई हमसे, मियां आओ क़

है दुनिया जिस का नाम मियाँ - नज़ीर अकबराबादी

है दुनिया जिस का नाम मियाँ ये और तरह की बस्ती है जो महँगों को तो महँगी है और सस्तों को ये सस्ती है याँ हरदम झगड़े उठते हैं, हर आन अदालत कस्ती है गर मस्त करे तो मस्ती है और पस्त करे तो पस्ती है कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल पर्स्ती है इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है जो और किसी का मान रखे, तो उसको भी अरमान मिले जो पान खिलावे पान मिले, जो रोटी दे तो नान मिले नुक़सान करे नुक़सान मिले, एहसान करे एहसान मिले जो जैसा जिस के साथ करे, फिर वैसा उसको आन मिले कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बदस्ती है जो और किसी की जाँ बख़्शे तो तो उसको भी हक़ जान रखे जो और किसी की आन रखे तो, उसकी भी हक़ आन रखे जो याँ का रहने वाला है, ये दिल में अपने जान रखे ये चरत-फिरत का नक़शा है, इस नक़शे को पहचान रखे कुछ देर नही अंधेर नहीं, इंसाफ़ और अद्ल परस्ती है इस हाथ करो उस हाथ मिले, याँ सौदा दस्त-बद्स्ती है जो पार उतारे औरों को, उसकी भी पार उतरनी है जो ग़र्क़ करे फिर उसको भी, डुबकूं-डुबकूं करनी है शम्शीर तीर बन्दूक़ स