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नवंबर, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे - अहमद फ़राज़

ज़िन्दगी से यही गिला है मुझे तू बहुत देर से मिला है मुझे हमसफर चाहिए, हुजूम नहीं एक मुसाफिर भी काफिला है मुझे तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल हार जाने का हौसला है मुझे कौन जाने की चाहतों में फ़राज़! क्या गंवाया है क्या मिला है मुझे!!

सासू की गति न्यारी.....

 प्यारी प्यारी सासु हमारी  प्रियतम की महतारी ।।प्यारी,,,,,,,,  प्राणनाथ के पिता ससुर जी  उनकी भी घरवारी  सम्प्रभुता सम्पन्न स्वगृह की   अनुविभाग अधिकारी।।प्यारी,,,,,,,,  बड़बोली मन की अति भोली  अनुभव की भण्डारी  सद् गृहस्थ जीवन जीने की  सिखा देत विधि सारी।।प्यारी,,,,,,,,  कुल परम्परा रीति नीति सब  की सांस्कृतिक प्रभारी  धन सम्पदा मान मर्यादा  सब घर की रखवारी।।प्यारी,,,,,,,,  सद् गुण देख प्रशंसा करती  कबहुँ अशीषे भारी  कबहुँ कबहुँ कुनेन सी कड़वी  देती बहु विधि गारी ।।प्यारी,,,,,,,,  रखती ध्यान अहर्निश माँ सम  सखियाँ सम हितकारी  गुरु समान सब ज्ञान सिखाती  सासू की गति न्यारी।।प्यारी,,,,,,,, By: शास्त्री_नित्यगोपाल_कटारे

ऐ मेरे प्यारे वतन -- (प्रेम धवन कृत)

ऐ मेरे प्यारे वतन ऐ मेरे बिछड़े चमन तुझ पे दिल कुर्बान। तू ही मेरी आरजू तू ही मेरी आबरू तू ही मेरी जान ॥धृ॥ तेरे दामन से जो आये उन हवा-ओंको सलाम चूम् लूँ मैं उस ज़ुबाँ को जिसपे आये तेरा नाम सबसे प्यारी सुबह तेरी सबसे रंगीं तेरी शाम तुझपे दिल् कुर्बान ॥१॥ माँ का दिल बनके कभी सीने से लग जाता है तू और कभी नन्ही सी बेटी बन के याद आता है तू जितना याद आता है मुझको उतना तड़पाता है तू तुझ पे दिल कुर्बान॥२॥ छोड़ कर तेरी ज़मींको दूर आ पहुंचे हैं हम फिर भी है येही तमन्ना तेरे जर्रों की कसम हम जहां पैदा हुये उस जगह ही निकले दम तुझ पे दिल कुर्बान ॥३॥ - प्रेम धवन

माँ (शास्त्री नित्यगोपाल कटारे)

तुम्हीं मिटाओ मेरी उलझन कैसे कहूँ कि तुम कैसी हो कोई नहीं सृष्टि में तुमसा माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो ब्रह्मा तो केवल रचता है तुम तो पालन भी करती हो शिव हरते तो सब हर लेते तुम चुन चुन पीड़ा हरती हो किसे सामने खड़ा करूं मैं और कहूं फिर तुम ऐंसी हो।। ज्ञानी बुद्ध प्रेम बिन सूखे सारे देव भक्ति के भूखे लगते हैं तेरी तुलना में ममता बिन सब रूखे रूखे पूजा करे सताये कोई सब की सदा तुम हितैषी हो।। कितनी गहरी है अद् भुत सी तेरी यह करुणा की गागर जाने क्यों छोटा लगता है तेरे आगे करुणा सागर जाकी रहि भावना जैसी मूरत देखी तिन्ह तैंसी हो।। मेरी लघु आकुलता से ही कितनी व्याकुल हो जाती हो मुझे तृप्त करने के सुख में तुम भूखी ही सो जाती हो सब जग बदला मैं भी बदला तुम तो वैसी की वैसी हो।। तुम से तन मन जीवन पाया तुमने ही चलना सिखलाया पर देखो मेरी कृतघ्नता काम तुम्हारे कभी नआया क्यों करती हो क्षमा हमेशा तुम भी तो जाने कैसी हो माँ तुम बिल्कुल माँ जैसी हो।। शास्त्री नित्यगोपाल कटारे

दो गज़ ज़मीन - बहादुर शाह ज़फ़र

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में  किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में - बहादुर शाह ज़फ़र

रश्मिरथी (दिनकर)

मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को, दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को, भगवान् हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। 'दो न्याय अगर तो आधा दो, पर, इसमें भी यदि बाधा हो, तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम। हम वहीं खुशी से खायेंगे, परिजन पर असि न उठायेंगे! दुर्योधन वह भी दे ना सका, आशिष समाज की ले न सका, उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला। जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है। हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया, डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले- 'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है, मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल। अमरत्व फूलता है मुझमें, संहार झूलता है मुझमें। 'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल, भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, सब हैं मेरे मुख के अन्दर, 'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड