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गधे ही गधे (रचयिता : श्री ओमप्रकाश "आदित्य")

इधर भी गधे हैं‚ उधर भी गधे हैं जिधर देखता हूं‚ गधे ही गधे हैं गधे हंस रहे‚ आदमी रो रहा है हिंदोस्तां में ये क्या हो रहा है जवानी का आलम गधों के लिये है ये रसिया‚ ये बालम गधों के लिये है ये दिल्ली‚ ये पालम गधों के लिये है ये संसार सालम गधों के लिये है पिलाए जा साकी‚ पिलाए जा डट के तू व्हिस्की के मटके पै मटके पै मटके मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं गधों की तरह झूमना चाहता हूं घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो यहां आदमी की कहां कब बनी है ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है जो माइक पे चीखे वो असली गधा है मैं क्या बक गया हूं‚ ये क्या कह गया हूं नशे की पिनक में कहां बह गया हूं मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था वो ठर्रा था‚ भीतर जो अटका हुआ था (श्री ओमप्रकाश "आदित्य")

अनपढ़ फिल्म का एक गीत

श्री मदन मोहन एवं राजा मेहंदी अली खां ने साथ में अनेक मधुर गीत रचित किये. लता जी की आवाज़ में यह गीत मन को कहीं छू जाते हैं.  आज फिल्म "अनपढ़" के यह बोल बार बार सुन रहा हूँ. "मुझे ग़म भी उन का अज़ीज है, कि उन्ही की दी हुई चीज़ है यही गम है अब मेरी जिंदगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूं जो ना बन सके, मैं वो बात हूँ, जो ना ख़त्म हो मैं वो रात हूँ, ये लिखा है मेरे नसीब में, यूँ ही शमा बन के जला करूं" दोनों अंतरों की पहली पंक्तियों के बारे में सोचे जा रहा हूँ. १. एक स्त्री जो प्रेम में डूबी है, उसके समर्पण की सीमा देखिये: "मुझे ग़म भी उन का अज़ीज है, कि उन्ही की दी हुई चीज़ है." यह भाव पुरुष के बस का नहीं. राजा मेहंदी अली खां के प्रति परम सम्मान मन में आ रहा है कि कैसे इन गहरे और कोमल भावों को शब्दों में ला पाए. २. जीवन में कई गलतियाँ कीं. कई बार चाहा कि बात संभल जाये, बहुत कोशिश की मगर बात बनी नहीं. बहुत अकेला और अधूरा लगा था उस समय. उस अभागेपन के भाव को क्या खूब लिखा है राजा साहब ने:  "जो ना बन सके, मैं वो बात हूँ" He then follows it up with a

पानी ने दूध से मित्रता की ......

पानी ने दूध से मित्रता की और उसमे समा गया.. जब दूध ने पानी का समर्पण देखा तो उसने कहा- मित्र ! तुमने अपने स्वरुप का त्यागकर मेरे स्वरुप को धारण किया है.... अब मैं भी मित्रता निभाऊंगा और तुम्हे अपने मोल बिकवाऊंगा । दूध बिकने के बाद जब उसे उबाला जाता है तब पानी कहता है.. अब मेरी बारी है मै मित्रता निभाऊंगा और तुमसे पहले मै चला जाऊँगा.. दूध से पहले पानी उड़ता जाता है जब दूध मित्र को अलग होते देखता है तो उफन कर गिरता है और आग को बुझाने लगता है, जब पानी की बूंदे उस पर छींट कर उसे अपने मित्र से मिलाया जाता है तब वह फिर शांत हो जाता है। पर इस अगाध प्रेम में.. थोड़ी सी खटास- (निम्बू की दो चार बूँद) डाल दी जाए तो दूध और पानी अलग हो जाते हैं.. थोड़ी सी मन की खटास अटूट प्रेम को भी मिटा सकती है । रिश्ते में.. खटास मत आने दो ॥ "क्या फर्क पड़ता है, हमारे पास कितने लाख, कितने करोड़, कितने घर, कितनी गाड़ियां हैं, खाना तो बस दो ही रोटी है । जीना तो बस एक ही ज़िन्दगी है । फर्क इस बात से पड़ता है, कितने पल हमने ख़ुशी से बिताये, कितने लोग हमारी वजह से खुशी से जिये । (Taken from Face

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं.....

ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा तू मिला है तो एहसास हुआ है मुझको ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है इक ज़रा सा गम-ए-दौरा का भी हक है जिसपर मैंने वो सांस भी तेरे लिए रख छोड़ी है तुझपे हो जाऊंगा कुर्बान तुझे चाहूँगा मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा अपने जज़्बात में नगमात रचाने के लिए मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूं मैंने किम्सत की लकीरों से चुराया है तुझे प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूँगा मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों में चिराग़ जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये तुझको छू लूँ तो फ़िर ए जान-ए-तमन्ना मुझको देर तक अपने बदन से तेरी ख़ुशबू आये तू बहारों का है उनवान तुझे चाहूँगा मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा -- क़तील शिफ़ाई