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अनपढ़ फिल्म का एक गीत

श्री मदन मोहन एवं राजा मेहंदी अली खां ने साथ में अनेक मधुर गीत रचित किये. लता जी की आवाज़ में यह गीत मन को कहीं छू जाते हैं.  आज फिल्म "अनपढ़" के यह बोल बार बार सुन रहा हूँ.

"मुझे ग़म भी उन का अज़ीज है, कि उन्ही की दी हुई चीज़ है
यही गम है अब मेरी जिंदगी, इसे कैसे दिल से जुदा करूं

जो ना बन सके, मैं वो बात हूँ, जो ना ख़त्म हो मैं वो रात हूँ,
ये लिखा है मेरे नसीब में, यूँ ही शमा बन के जला करूं"

दोनों अंतरों की पहली पंक्तियों के बारे में सोचे जा रहा हूँ.

१. एक स्त्री जो प्रेम में डूबी है, उसके समर्पण की सीमा देखिये: "मुझे ग़म भी उन का अज़ीज है, कि उन्ही की दी हुई चीज़ है."
यह भाव पुरुष के बस का नहीं. राजा मेहंदी अली खां के प्रति परम सम्मान मन में आ रहा है कि कैसे इन गहरे और कोमल भावों को शब्दों में ला पाए.

२. जीवन में कई गलतियाँ कीं. कई बार चाहा कि बात संभल जाये, बहुत कोशिश की मगर बात बनी नहीं. बहुत अकेला और अधूरा लगा था उस समय. उस अभागेपन के भाव को क्या खूब लिखा है राजा साहब ने:  "जो ना बन सके, मैं वो बात हूँ" He then follows it up with a line  - जो ना ख़त्म हो मैं वो रात हूँ.  indicating unending despondency and sadness.   

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