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छिप-छिप अश्रु बहाने वालों - गोपाल दस नीरज


छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है, नयन सेज पर, सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों, जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है।

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर, केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चांदनी, पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों!
चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आई पनघट पर,
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर,
तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों!
लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गन्ध फूल की,
तूफानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बन्द न हुई धूल की,
नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों!
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से दर्पन नहीं मरा करता है!

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