समर निंद्य है धर्मराज, पर, कहो, शान्ति वह क्या है, जो अनीति पर स्थित होकर भी बनी हुई सरला है? सब समेट, प्रहरी बिठला कर, कहती कुछ मत बोलो, शान्ति-सुधा बह रही न इसमें, गरल क्रान्ति का घोलो। हिलो-डुलो मत, हृदय-रक्त, अपना मुझको पीने दो, अचल रहे साम्राज्य शान्ति का, जियो और जीने दो। सच है सत्ता सिमट-सिमट, जिनके हाथों में आयी, शान्तिभक्त वे साधु पुरुष, क्यों चाहें कभी लड़ाई ? शान्ति नहीं तब तक; जब तक, सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो। न्याय शान्ति का प्रथम न्यास है, जब तक न्याय न आता, जैसा भी हो महल शान्ति का, सुदृढ़ नहीं रह पाता। और जिन्हें इस शान्ति-व्यवस्था, में सुख-भोग सुलभ है, उनके लिये शान्ति ही जीवन -सार, सिद्धि दुर्लभ है। पर, जिनकी अस्थियाँ चबाकर, शोणित पी कर तन का, जीती है यह शान्ति, दाह, समझो कुछ उनके मन का। स्वत्व माँगने से न मिले, संघात पाप हो जायें, बोलो धर्मराज, शोषित वे जियें या कि मिट जायें? क्षमा, दया, तप, तेज, मनोबल की दे वृथा दुहाई...
इस ब्लॉग में मैं चुनिन्दा कवितायेँ पोस्ट करूंगा. इनमे से हर कविता ने कहीं न कहीं मेरे मन को छुआ होगा