सोमवार, 9 नवंबर 2015

गधे ही गधे (रचयिता : श्री ओमप्रकाश "आदित्य")

इधर भी गधे हैं‚ उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूं‚ गधे ही गधे हैं
गधे हंस रहे‚ आदमी रो रहा है
हिंदोस्तां में ये क्या हो रहा है

जवानी का आलम गधों के लिये है
ये रसिया‚ ये बालम गधों के लिये है
ये दिल्ली‚ ये पालम गधों के लिये है
ये संसार सालम गधों के लिये है

पिलाए जा साकी‚ पिलाए जा डट के
तू व्हिस्की के मटके पै मटके पै मटके
मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं
गधों की तरह झूमना चाहता हूं

घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो
यहां आदमी की कहां कब बनी है
ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है

जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है

मैं क्या बक गया हूं‚ ये क्या कह गया हूं
नशे की पिनक में कहां बह गया हूं
मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
वो ठर्रा था‚ भीतर जो अटका हुआ था

(श्री ओमप्रकाश "आदित्य")

1 टिप्पणियाँ:

यहां 9 नवंबर 2015 को 10:27 pm बजे, Blogger Madabhushi Rangraj Iyengar ने कहा…

बहुत सुंदर कविता...

 

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